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Friday, September 12, 2014

बचपन के गुज़रे लम्हों को तरसता हु...

अंजामे मंजिल में किसके फरक है जिन्दंगी,
लोग बस तुझे जीना भूल जाते है,

शायद अपनी अंतहीन जरूरतों को पूरा करने में मशगूल हो जाते है.
या उम्र की परतो से बने जाल में खो जाते है,

फ़िक्र नहीं है मुझे तेरे इन रस्तो की,
बस बचपन के गुज़रे लम्हों को तरसता हु...

वो शाम को दोस्तों को घर से बुलाना,
और कंचो से भरी जुराब से महफ़िल बैठाना,
फिर हार-जीत के आलम में घर जाने की घड़ी भूल जाना.

लोगो के घरों के आँगन से आम तोड़के दोस्तों को गिनाना,
और हवाई जहाज के साये में बेर तोड़ते पकडे जाना,
फिर पिटाई के डर से रस्ता भूलने का बहाना बनाना.

वो बारिशो के मौसम में स्कूल के मैदानों का तालाब में बदल जाना,
और दोस्तों के साथ शर्त लगा के पत्थर को उसपे चलाना,
फिर जीत जाने पर पुरे मोहल्ले को बताना.

वो स्कूल के कोने में अपना अड्डा बनाना,
और पेड़ पर चढ़के बंदर सा चेहरा बनाना,
फिर रोज की तरह मध्यांतर का समय मस्ती के लिए कम पड़ जाना.

वो अंग्रेजी के अद्यापक का कक्षा में आना,
और कापी का निरक्षण करने मंगाना,
फिर अपने हस्ताक्षर पहले से पा के हैरान हो जाना.

वो खेतों से घिरे हमारे इक दोस्त के घर का ठिकाना,
और हर इतवार को सबका उसके यहाँ आना जाना,
फिर उसके दुर्लभ टेलीफोन का लुफ्त भुट्टो के साथ उठाना.

वो दिन में दोस्तों का मेरा मजाक बनाना,
और मेरा उनसे कुछ रूठ जाना,
फिर शाम को खेलते हुए सब भूल जाना.

वो किसीका मुझ से मुस्करा के किताब मंगाना,
और मेरा एक सांस में दौड़ के उससे मिलने जाना,
फिर बार बार ढूंढ़ना उसको मिलने का बहाना.

छाते बस्ते में रख के जानपूछ कर भीग के घर जाना,
और उस पर माँ के सामने मासूमियत से भरा चेहरा बनाना,
फिर कपडे बदल कर फिर चाव से दिन भर के किस्से सुनाना.

लम्बाई के हिसाब से पेंट की सिलवटे खुलवाना,
और अलग अलग नीले रंगो की धारियों से शर्म खाना,
फिर माँ से अगले साल नई लाने का वादा कराना.

वो पहली बार साइकिल चलाना,
और थोड़ी दूर चलाके गिर जाना,
फिर पापा के मजबूत हाथो के सहारे का लुफ्त उठाना.

न पढ़ने पर पापा का समझाना या पिट जाना,
और गुस्से से कभी कभी उनसे रूठ जाना,
फिर माँ का मुझे प्यार से मनाना.

अंजामे मंजिल में किसके फरक है जिन्दंगी,
लोग बस तुझे जीना भूल जाते है,
फ़िक्र नहीं है मुझे तेरे इन रस्तो की,
बस बचपन के कीमती लम्हों को तरसता हु...

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