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Tuesday, September 9, 2014

ज़रुरत का आभास हो ही जाता है

मेरा यही अंदाज ज़माने को खलता क्यों है,
की मेरा ये चिराग हवा के खिलाफ जलता जो है. 

रोशन करते है हम इस दुनिया को अपने वज़ूद से,
पर इंसान है...
तो जलने का एहसास कभी कभी हो जाता है. 

स्वार्थ ही कहलो तुमसे कुछ प्यार की बूंदो पाने का,
हमेशा जगमगाने के लिए अपनी ज़रुरत का आभास हो ही जाता है.

कुछ युही अपनी कलम की नोक पर बैठी शब्दों की स्याही से कुछ पक्तिया लिखदे तो...

न सोचो इन्हे हमारे एहसासो की अभिव्यक्ति, 
बस भर्मित मन में चैन आ जाता है,
और कुछ दिल में अपना शौक पूरा करने का मज़ा आ जाता है.

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