ये कमबख्त सीरत ही न बदल पाए,
तो ज़माने को क्या दोष दे.
हकीकत में न जी पाए,
तो इन सपनो को क्या दोष दे,
रस्ते तो सीधे है मगर,
हम अपनी मंजिल को न देख पाये,
तो इन आखो को क्या दोष दे.
मंजिल को पाने में रस्तो को न देख पाये,
तो इन इरादो को क्या दोष दे.
मंजिल की फ़िक्र में बहुत मायाजाल है,
मेरी मानो तो ये रस्ते ही असली माल है.
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